Sunday, July 30, 2017

रायपुर - स्मृतियों के झरोखे से 1 - प्रभाकर चौबे

    रायपुर शहर एक छोटे से कस्बे से धीरे धीरे आज छत्तीसगढ़ की राजधानी के रूप में लगातार विकसित हो रहा है । इत्तेफाक ये भी है कि इस वर्ष हम अपने नगर की पालिका का 150 वॉ वर्ष भी मना रहे हैं ।
  हमारी पीढ़ी अपने शहर के पुराने दौर के बारे में लगभग अनभिज्ञ से हैं । वो दौर वो ज़माना जानने की उत्सुकता और या कहें नॉस्टेलजिया सा सभी को है । कुछ कुछ इधर उधर पढ़ने को मिल जाता है । सबसे दुखद यह है कि कुछ भी मुकम्मल तौर पर नहीं मिलता । 
        बड़े बुज़ुर्गों की यादों में एक अलग सा सुकून भरा वो कस्बा ए रायपुर  अभी भी जिंदा है । ज़रा सा छेड़ो तो यादों के झरोखे खुल जाते हैं और वे उन झरोखों से अपनी बीते हुए दिनों में घूमने निकल पड़ते हैं। इस यात्रा में हम आप भी उनके सहयात्री बनकर उस गुज़रे जमाने की सैर कर सकते हैं।
   इसी बात को ध्यान में रखकर हम अपने शहर रायपुर को अपने बुज़ुर्गों की यादों के झरोखे से जानने का प्रयास कर रहे हैं । इस महती काम के लिए छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रभाकर चौबे अपनी यादों को हमारे साथ साझा करने राजी हुए हैं । वे  रायपुर से जुड़ी अपनी स्मृतियों को साझा कर रहे हैं । इसकी शुरुवात हम आज 31 जुलाई से  करने जा रहे हैं । 
       एक बात स्पष्ट करना जरूरी है कि ये कोई रायपुर का अकादमिक इतिहास नहीं है , ये स्मृतियां हैं । जैसा श्री प्रभाकर चौबे जी ने रायपुर को जिया । एक जिंदा शहर में गुज़रे वो दिन और उन दिनों से जुड़े कुछ लोग, घटनाएं, भूगोल, समाज व कुछ कुछ राजनीति की यादें ।  और इस तरह गुजश्ता ज़माने की यादगार तस्वीरें जो शायद हमें हमारे अतीत का अहसास कराए और वर्तमान को बेहतर बनाने में कुछ मदद कर सके।
   आपकी प्रतिक्रियाओं और सुझावों का भी स्वागत रहेगा।

जीवेश प्रभाकर

अपनी बात

मन हुआ रायपुर पर लिखा जाए - बहुत पहले देशबन्धु का साप्ताहिक संस्करण भोपाल से प्रकाशित हो रहा था तब 12 कड़ियों में रायपुर पर लिखा था, खो गया । पुन: कोशिश कर रहा हूँ - इसमें कुछ छूट रहा हो तो पाठक जोड़ने का काम कर सकते हैं । रायपुर के बारे में  एक जगह जानकारी देने का मन है - अपना रायपुर पहले क्या कैसा रहा ...।   
-प्रभाकर चौबे

रायपुर : स्मृतियों के झरोखे से-1
- प्रभाकर चौबे



सन् 1943 में पहली बार रायपुर आना हुआ मैं तब बच्चा था । सिहावा से बैलगाड़ी में धमतरी आए हम धमतरी से छोटी ट्रेन में बैठकर रायपुर - ट्रेन में बैठने का पहला अवसर था। एक रिश्तेदार के घर शादी में आए थे । बढ़ाई पारा में मौसी के घर ठहरे थे । रायपुर स्टेशन पर माँ ने टाँगा किया था - चार आने में उसने हमें बढ़ाई पारा पहुँचा दिया । आज जहाँ मंजू ममता रेस्ट्रारेंट है वह उन दिनों वहाँ नहीं था - उसी मकान से शादी हुई थी । बाद में वहाँ महाकौशल अखबार का दफ्तर लगने लगा । पहले वह साप्ताहिक अखबार था शायद 1950 में दैनिक किया गया । शादी निपटने के बाद एक दिन अपने मौसेरे भाई के साथ जो मुझसे काफी बड़े थे, रायपुर घूमने निकला - आज भी याद है । जहाँ आज जयराम कॉम्पलेक्स है वहाँ शारदा टाकीज थी और सड़क किनारे में दुकानों से लगाकर सीमेंट का फुटपाथ बना था जो आगे चौराहे तक जाता था तब यह चौराहा जयस्तम्भ नहीं कहलाता था, 15 अगस्त 1947 से यह जयस्तम्भ चौक कहलाने लगा । इसी चौराहे के दूसरे छोर पर जहाँ आज गिरनार होटल है उस भवन में पब्लिक स्कूल था । चौराहे के उस छोर पर इम्पीरियल बैंक का भवन - उसके ऊपर अंग्रेजों का झंडा फहरा रहा था । दूसरी तरफ सीमेंट का फुटपाथ बना था जो आगे पोस्ट ऑफिस तक जाता था । इस फुटपाथ पर कटिंग करने वाले अपने डिब्बा लेकर बैठते दाढ़ी का एक आना और कटिंग का दो आना रेट था । कुछ फोटोग्रार भी अपना सामान लेकर यहाँ खड़े होते इसी से लगकर एक भवन था जिसमें कलकत्ता बैंक लगता था - मेरे मौसेरे भाई ने कहा था - यह है कलकत्ता बैंक । आगे दाहिनी ओर बेंसली रोड ( आज का मालवीय रोड) पर पोस्ट ऑफिस और पोस्ट आफिस से पहले सुपरिनटेंडेंट रेलवे पुलिस का दफ्तर और उसी भवन में डिप्टी डायरेक्टर एग्रीकल्चर का ऑफिस लगता था । दाहनी ओर पालिका का भवन था । पालिका भवन से पहले एक बड़ा-सा भव्य गेट था - उस पर लिखा था केसर-ए- हिन्द दरवाजा ।
बेंसलीरोड में आगे बढ़ते चले जाने पर दाहिनी ओर डायमंड होटल था - काफी प्रसिद्ध। उसके मालिक थे बेचर भाई - फुटबाल मैच देखने के शौकीन - यह जानकारी मौसेरे भाई ने चलते हुए दी थी । उससे पहले ही बाबूलाल टाकीज थी । डायमंड होटल से लगकर एक बड़ा पीपल का दरख्त था - वैसे पूरे बंसली रोड में जगह जगह पीपल के पेड़ थे । सी बेंसली रोड पर डायमंड होटल के  सामने फ्रुट मार्केट था और फिलिप्स मार्केट   जिसे आज जवाहर बाज़ार के नाम से जाना जाता है। दरअसल वो जवाहिर मार्केट है जिसके बारे में आगे चर्चा करेंगे । आगे चौक पड़ता । चौक के बाई ओर कोने पर हबीब होटल था और दूसरी तरफ दाएं बाजू दूसरे कोने पर भांजीभाई की दुकान थी । उसी से लगे झाड़ की छाया में पसरा लिए कुछ फल बेचने वाली बैठती थी । भांजीभाई से लगकर एक इतर की दुकान थी आगे हनुमान जी मढ़िया थी - पीपल झाड़ के नीचे । बेंसली रोड के अंदर बाजू प्रसिद्ध गोल बाजार था । बेंसली रोड पर ही बाई ओर बाटा की दुकान थी और सामने कीका भाई की दुकान थी । आगे गोल्डन हाउस था । कोतवाली चौरहो से दाहिनी तरफ मुड़ने पर सदर में घुसते पर हम सड़क की तरफ बढ़े । मौसेरे भाई ने कहा कोतवाली से आगे देखने लायक कुछ है नहीं । मौसरे भाई ने फूल चौक पर चलते ही बताया - ये यादव न्यूज एजेंसी है। नागपुर से निकलने वाले अखबार शाम को यहाँ पहुँचते हैं इसी फूल चौक पर डॉ.टी.एम. दाबके का दवाखाना था । आगे जो एक गली जोरापार को निकलती है उस मोड़ पर दुर्ग जाने वाली बसों का बस अड्डा था - कोयले के भॉप से बसे चलती थीं ।
फूल चौक से तात्यापारा चौक की तरफ बढ़ने पर नगरपालिका के दो प्राथमिक स्कूल थे एक उर्दू प्राथमिक स्कूल और दूसरा हिन्दी प्राथमिक स्कूल यहाँ आज नवीन मार्केट है । आगे मिशन पुत्रीशाला थी । इस पुत्री शाला में पढ़ाने वाली शिक्षिका मिसेज फ्रांसिस जो सालेम गर्ल्स हाई स्कूल की प्राचार्य बनी ...
जारी''




2 comments:

  1. अपने बचपन से प्यारे शहर के भुला दिए जानेवाले संस्मरणों को यूं सामने लाना अच्छा लगा। अपना अतीत पता होना जरूरी है।ये जानकारियां अब कोई नहीं देता। आने वाली पीढ़ियों को पता होना चाहिए की उनका यह शहर पहले कैसा था?कितने बदलाव यहां आते गए ?आखिर कितना कुछ हमने खो दिया?आगे चलते हुए हमेशा थोड़ा पीछे भी देखते रहना चाहिए तभी सार्थक लम्बी दूरी तय हो सकेगी।

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया डॉक्साब। कोशिश रहेगी कि लगातार रायपुर की उन भूली बिसरी योदों को साझा कर सकें जो अब तक अनजान सी रही हैं ।

      Delete